सोमवार, 14 सितंबर 2015

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !
(राष्ट्रभाषा-दिवस : १४ सितम्बर)
लॉर्ड मैकाले ने कहा था : ‘मैं यहाँ की शिक्षा-पद्धति में ऐसे कुछ संस्कार डाल जाता हूँ कि आनेवाले वर्षों में भारतवासी अपनी ही संस्कृति से घृणा करेंगे... मंदिर में जाना पसंद नहीं करेंगे... माता-पिता को प्रणाम करने में तौहीन महसूस करेंगे... वे शरीर से तो भारतीय होंगे लेकिन दिलोदिमाग से हमारे ही गुलाम होंगे...
हमारी शिक्षा-पद्धति में उसके द्वारा डाले गये संस्कारों का प्रभाव आज स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है । आज के विद्यार्थी पढ-लिख के ग्रेजुएट होकर बेरोजगार हो नौकर बनने के लिए भटकते रहते हैं ।
  ‘‘करोडों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है । मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी । यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना पडे ! हिन्दुस्तान को गुलाम बनानेवाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग हैं । प्रजा की हाय अंग्रेजी पर नहीं बल्कि हम लोगों पर पडेगी ।
अंग्रेज़ी का हमारे जीवन पर कितना दुष्प्रभाव पडता है,: ‘‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में जो बोझ दिमाग पर पडता है वह असह्य है । यह बोझ केवल हमारे बच्चे ही उठा सकते हैं लेकिन उसकी कीमत उन्हें ही चुकानी पडती है । वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते । इससे हमारे ग्रेजुएट अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं । उनमें खोज की शक्ति, विचार करने की ताकत, साहस, धीरज, बहादुरी, निडरता आदि गुण बहुत ही क्षीण हो जाते हैं । इससे हम नयी योजनाएँ नहीं बना सकते, बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर सकते । कुछ लोग जिनमें उपरोक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं ।
  ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा लेने से टूट जाता है । हम ऐसी शिक्षा के शिकार होकर मातृद्रोह करते हैं ।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी मातृभाषा को बडे सम्मान से देखा और कहा था कि ‘‘अपनी भाषा में शिक्षा पाना जन्मसिद्ध अधिकार है । मातृभाषा में शिक्षा दी जाय या नहीं, इस तरह की कोई बहस होना ही बेकार है । उनकी मान्यता थी कि ‘जिस तरह हमने माँ की गोद में जन्म लिया है, उसी तरह मातृभाषा की गोद में जन्म लिया है । ये दोनों माताएँ हमारे लिए सजीव और अपरिहार्य हैं ।
गांधीजी ने मातृभाषा-प्रेम को व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं उससे उसी तरह चिपका रहूँगा जिस तरह अपनी माँ की छाती से । वही मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है । मैं अंग्रेजी को उसकी जगह प्यार करता हूँ लेकिन अंग्रेजी उस जगह को हडपना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा । मैं इसे दूसरी जबान के तौर पर जगह दूँगा लेकिन विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम, स्कूलों में नहीं । वह कुछ लोगों के सीखने की चीज हो सकती है, लाखों-करोडों की नहीं । रूस ने बिना अंग्रेजी के विज्ञान में इतनी उन्नति की है । आज अपनी मानसिक गुलामी की वजह से ही हम यह मानने लगे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम चल नहीं सकता । मैं इस चीज को नहीं मानता ।
विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से अति आवश्यक है, क्योंकि विद्यालय आने पर बच्चे यदि अपनी भाषा को व्यवहार में आयी हुई देखते हैं तो वे विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं । साथ ही उन्हें सब कुछ यदि उन्हींकी भाषा में पढाया जाता है तो उनके लिए सारी चीजों को समझना बहुत ही आसान हो जाता है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी ‘निज भाषा कहकर मातृभाषा के महत्त्व व प्रेम को अपने निम्नलिखित बहुचर्चित दोहे में व्यक्त किया है :
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल । बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
उन्नति पूरी है तबqह, जब घर उन्नति होय । निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ सब कोय ।।
रवीन्द्रनाथजी ने जापान का दृष्टांत देते हुए बताया है कि ‘‘इस देश में जितनी उन्नति हुई है, वह वहाँ की अपनी भाषा जापानी के ही कारण है । जापान ने अपनी भाषा की क्षमता पर भरोसा किया और अंग्रेजी के प्रभुत्व से जापानी भाषा को बचाकर रखा ।
जापानी इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि वे अमेरिका जाते हैं तो वहाँ भी अपनी मातृभाषा में ही बातें करते हैं । ...और हम भारतवासी ! भारत में रहते हैं फिर भी अपनी हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट कर देते हैं । गुलामी की मानसिकता ने ऐसी गन्दी आदत डाल दी है ।

भमावत 
थूर, उदयपुर , मेवाड़
मो. 0917891529862

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